Sunday 11 March 2018

परदा उठने से, परदा गिरने तक !


पीहू मेरे,
रविवार की उस शाम,
मैं घर पर ही भली थी।
क्यों बुला लिया तुमने ?
शेक्सपियर का नाटक दिखाने के लिए !
नाटक तो खत्म हो गया
मगर मैं....
उस ऑडिटोरियम से अब तक बाहर नहीं आ पाई !!


बार-बार आकर शेक्सपियर
मुझसे मेरे कान में
कुछ न कुछ कहते रहे।
कभी ये
कि,
नाम में क्या रखा है;
गुलाब का नाम बदलने से भी
कहीं ख़ुशबू बदला करती है?”
और कभी ये
कि,
सारा संसार एक रंगमंच है
और हम सब;
अभिनेता भर हैं... बस।


बावरे देव,
कितना समझाती हूँ तुमको ,
कि मेरी डोर को यथार्थ से काटकर
किसी दूसरे संसार से मत जोड़ा करो।
वरना एक दिन
मैं यहाँ की न रहूँगी
और तुम ...
हाथ मलते रह जाओगे।


उदासियों को
बहुत गले लगाये फिरते हो न इन दिनों,
सच भी है
ना तो तुम वो बच्चे हो,
जो चन्दा को मामा बुलाता है।
और ना ही वो बूढ़े,
जिसका बिस्तर ही उसका संसार बन जाता है।
लेकिन तब भी
यूँ बात बे-बात भटकना,
नजूमियों के कुओं में
अपनी प्यास खोजना,
कहाँ तक ठीक है?
आज तक भला कोई
मौत की भविष्यवाणी कर पाया
जो ज़िंदगी का भविष्य बताएगा ?
औंधा कुआं है ये कबीर वाला !
ख़ुद में झाँको...
तब ही अक्स नज़र आयेगा।


दुनिया मुझसे रश्क़ करती है
कि मेरे पास
तुम जैसा प्रेमी है।
और एक तुम हो
जो मुझसे मिलकर उदास हो जाते हो !
मैं तब भी थी देव,
मैं अब भी हूँ;
हम हमेशा रहेंगे
रूप बदलकर !


एक बात सुनो
मेरे लिए प्यार....
कविता की पंक्तियों जैसा नहीं,
मेरे लिए तो प्यार
सूखे कंठ वाले
किसी पागल प्रेमी के
टूटे-फूटे शब्दों जैसा है।
जिसकी व्याख्या,
कोई नहीं कर पाता।
जिसके शब्दों का रस,
सिर्फ उसकी प्रेयसी को ही आता है।
इसीलिए कहती हूँ,
ख़ुद को इतना हलकान न किया करो।


और हाँ,
अबके नाटक दिखाने,
जल्दी से बुलाना।
जीवन भी मेरे लिए बस इतना ही है....
परदा उठने से,
परदा गिरने तक !


एक बात और,
भरोसा करना सीखो
ख़ुद पर और खुदाई पर !!


तुम्हारी

मैं !

1 comment: