Tuesday 2 January 2018

मुक्ति मिटने में नहीं, बदलने में है !





देव सुनो,
दूर किसी दरवाज़े, किसी पेड़ से लटकती हुई
चाइम्स बेल की झंकार सुनाई दे रही है ?
ये आवाज़ें ....
इतनी ही दूर रहेंगी।
तुम इनका पीछा करोगे तब भी....
ये एक दूरी बनाए रखेंगी।
और फिर धीरे-धीरे लुप्त हो जाएंगी।

दरअसल ये आवाज़ें, आवाज़ नहीं लम्हे हैं।
गुज़श्ता साल के लम्हे !!
जो अब तुमसे विदा ले रहे हैं।

कभी दुःख की पुड़िया में लिपटा सुख
तो कभी सुख के कलेवर में लिपटा दुःख।

कभी-कभी,
कुछ चीज़ें इतनी अचानक हो जाती हैं
कि हम उनका हिस्सा होकर भी
बस दर्शक बने देखते रह जाते हैं।
और कभी-कभी
कुछ लम्हे इतने धीमे रेंग-रेंग कर निकलते हैं
कि उनके गुज़र जाने के बहुत बाद भी
उनकी छुअन महसूस होती रहती है।

पता है
अभी-अभी मैंने क्या महसूस किया !
सिगड़ी पर रखी, धुंआ उगलती एक केतली।
बंगाली साड़ी पहने एक युवती
और समीप खड़ा उसका प्रेमी।
कुर्ता पहने
सफेद हो रही अपने बालों की कलम पर हाथ फेरता
स्निग्ध त्वचा वाला 
......वो प्रेमी।

ज़रूरी तो नहीं
कि हर बार जब कोई स्वप्न बुनो
तो उसका एक निर्धारित स्वरूप हो।
अक्सर हमें समय की गति तो पता लगती है देव
मगर हम
ख़ुद को स्थिर मानने की भूल कर बैठते हैं।
हम...
जो जाने कितने प्रकाश वर्ष हर दिन चला करते हैं
भीतर ही भीतर !

एक बात बताओ,
जब-जब मैं तुमसे ये कहती हूँ
कि हम सब अपनी अपनी यात्रा पर हैं।
तब-तब तुम
इतने व्यथित क्यों हो जाते हो ?
बोलो....
मैं जानती हूँ
अकेली यात्राओं की कल्पना मात्र ही से
तुम सिहर उठते हो।
लेकिन ये तो सोचो
उस यात्रा की सिद्धि भी तुम्हारी होगी
और अनुभव भी सिर्फ तुम्हारा !
कुछ यात्राएं 
नितांत व्यक्तिगत होती हैं देव
जिसमें पहले क्रम पर भी हम ही हुआ करते हैं
और सबसे आख़िर में भी बस हम ही खड़े होते हैं।
लेकिन स्वीकारने से डरते हैं
पर डर कर भी क्या होगा
जो करना है
सो तो करना ही पड़ेगा ना !

कोई आर्त्र स्वर में पुकारता है
"मेरे पास ही रहना।"
जवाब में एक मद्धम स्वर उभरता है
"मैं हमेशा से तुम्हारे साथ हूँ।
यहाँ...
तुम्हारे भीतर !"

छटपटाहट की सीमा लाँघ कर
आँखों में सूनी तड़प लिये।
एक बार सिर उठाकर
आसमान की ओर देखना देव
तब जान पाओगे
कि मोक्ष जीते जी मिला करता है।
मुक्ति के लिए मिटना नहीं होता
हाँ,
रूप बदल जाया करते हैं अक्सर।

देखो तो,
सूर्य की ये किरणें
धुँए के अस्तित्व को उजागर कर रही हैं।
लोबान ने जल कर सुगन्ध बिखेरी
और फिर उसका धुंआ बादल बन गया।
बादल.... जो एक दिन
हम सब पर बरसेगा।
मुक्ति मिटने में नहीं देव
रूप बदलने में है।
समझे हो !

तुम्हारी
मैं !



No comments:

Post a Comment