Thursday 2 April 2015

हम तो रूह हैं, शरीर ये पहाड़ हैं !




आँसू और इंसान का रिश्ता भी अजीब है
मर्द आँसू छिपाते हैं
और लड़कियों के आँसू समझ नहीं आते।
वो कमली.....
पहाड़ों पे रहती है,
कविता लिखती है,
हँसकर भी हरदम भीगी सी रहती है।  
पहली बार देखा, तो देखता रह गया !
उसके सौन्दर्य में बेचैनी नहीं,
एक सुकून था।
अजीब सा सुकून....
जो आम तौर पर सुंदरियों में नहीं होता।

उसकी तपिश सुलगाती नहीं,
उसकी पलकों की कोर कभी सूखती नहीं,
फिर भी देखो
पगली बारिश की दीवानी है।  
पहाड़ों से जाने कैसा रिश्ता है उसका
ढूँढ ही लाते हैं,
बे-मौसम बादल ... उसके लिए।
भीगती रहती है वो बार-बार।

भटका करती है
अपने ही मन की अनजानी गुफा में।
पतली-पतली टाँगों से नापा करती है
ऊबड़-खाबड़ दूरियाँ !
दूरियाँ....
जो पहाड़ों से बहुत पास नज़र आती हैं,
मगर तय करते-करते अक्सर शाम हो जाती है।
सूनी आँखों से मैं तका करता हूँ
उसका खाली ब्लॉग !!
और कभी फिर दिख जाया करती है
पहाड़ी चिड़िया सी चीं-चीं करती।

कल कुछ अजीब हुआ
मन ही मन मैंने उसे जीना चाहा।
कुछ नहीं सूझा
तो नंगी ज़बान पर,
हरी मिर्च के दो टुकड़े रख कर,
दाँतों से कुचल दिये।
और फिर तड़पता रहा,
उस मिर्चीले एहसास के बोझ तले,
... पूरे पाँच मिनिट चव्वन सेकिंड।

आँसुओं के बाँध पर जब दर्द के थपेड़े लगे
तो नीबू के अचार की एक खट्टी फाँक रख ली।
अजीब सी पीड़ा से भर उठा मैं
सुखमयी पीड़ा !!
अहसासों से परे अहसास !!!
ऐसी ही होती होगी, पराकाष्ठा की अनुभूति।
गरम-गरम अश्रुधार बह निकली मेरी पलकों की कोर से
और मैं देर तक ठंडे फर्श पर लेटा
उस पहाड़न को जीता रहा।

यकीन करोगी .....
अगली ही सुबह उसका संदेसा आया
उसने भेजे थे पहाड़ों के चित्र
और लिखा था

“देव,
तुम भले न आओ
मैं पहाड़ों को भेज रही हूँ
तुम तक !!!
कोई ख़त लिखना,
मगर मुझ जैसी लड़की पर नहीं।
हम तो रूह हैं,
शरीर ये पहाड़ हैं !
लिख सको तो लिखना, पहाड़ों पर ख़त।”

सोचता हूँ
ये जीवन इतना विचित्र क्यों है
पहले भी सोचा करता था  
मगर कभी इसका जवाब नहीं मिला।


तुम्हारा

देव




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