Thursday 8 January 2015

“तुम्हारे शब्दों की छुअन”




ये किताब देख रही हो !!!
जिस पर आकर ठहर गया है धूप का बीम....
दूसरी नज़र से देखो,
तो शायद
....यहीं से शुरू होकर आगे बढ़ी होगी रोशनी !

हर महीने कोई एक या दो किताबें तलाश लेता हूँ,
जो मेरे साँस लेने का सबब बन जाये।
यकीन मानो पढ़ता इतना नहीं
जितना कि यूँ ही किताब खोल कर उल्टे लेटे रहने में सुकून पाता हूँ।
अक्सर चार, छह या आठ लाइनें पढ़ने के बाद कहीं खो जाता हूँ।
और जब पन्ना पलटने लगता हूँ,
तो ध्यान आता है
कि मैं पढ़ नहीं रहा था
मैं तो बस सोच रहा था....
और सोच को आधार देने के लिए शब्दों को नज़र के सामने से निकाल रहा था।
इस बात को लेकर थोड़ा अफ़सोसज़दा हो जाता हूँ।
फिर से बटोरता हूँ मेरे भीतर के पाठक को !
एक-एक अक्षर पकड़ता हूँ, अपनी पुतलियाँ सिकोड़ कर !
मगर दो-तीन पन्ने पढ़ने के बाद
फिर वही बेखुदी आ पसरती है।

कभी-कभी तुम उभर आती हो
अंतस में मेरे
एक खयाल बनकर।
“सुनो देव,
हम बच्चे नहीं रहे अब
वी आर फुली ग्रोन
जो मैं बन गयी हूँ
उसे कैसे बदलूँ अब !”
और मेरा मन छुई-मुई सा सिकुड़ने लगता है
तुम्हारे शब्दों की छुअन से।

ठीक तभी तुम्हारा एक और स्वर गूंज उठता है
”डेम
डोंट यू नो
आय लव यू
मोर देन माय लाइफ देव।”

अचानक एक सन्नाटा छटपटाने लगता है, कोलाहल से छिटक कर !
मैं स्तब्ध सा
उस आवाज़ को पकड़ कर
फिर कानों से गुज़ारने की कोशिश करता हूँ।
पर एक भाव ढलक पड़ता है
पलकों की कोरों से ...
गीला-गरम भाव !!!

हाँ,
प्यार ही तो है
जो हमको हमसे मिला देता है.... पूरी तरह।
वरना ज़िंदगी तो बस
पहले से तय खाँचे में सिमटने के लिए,
कटती-छंटती रहती है अंत तक।
तुम...
सबसे अलग, सबमें अलग होकर भी मेरी हो।
तुम...
जो मुझसे इस बात के लिए बहस करती हो कि मैं झगड़ता क्यों नहीं !
तुम...
जो कभी-कभी ये जतलाती हो कि कोई बहुत बड़ा राज़ मुझसे छिपा रही हो।
सिर्फ इसलिए,
कि मैं पंजों के बल उचक-कर झाँक लूँ
तुम्हारे मन के उस पार !!!
जहाँ उगा रक्खा है तुमने
एक नन्हा पौधा मेरे नाम का।

बेमक़सद मैं ...
अब अपनी राह टटोल चुका हूँ प्रिये
शुक्रिया तुम्हारे प्यार का !

तुम्हारा

देव







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