Wednesday 2 July 2014

ख़त्म तो इंसान हुआ करते हैं !!!


ख़त था एक …
बहुत पुराना !
इतना पुराना कि हाथ लगाया तो पंखुरी सा झरने लगा
विश्वास - अविश्वास की लहरों के बीच डूबते -झूलते मैं यूँ ही उसे देखता रहा। 

फिर जतन करके खोला तो जितनी तहें थीं, उतने ही टुकड़े हाथ में आ गए।
बच रहा तो सिर्फ बीस साल पुराना एक एहसास …
जिस पर ग्यारह साल की गर्द पड़ी हुयी थी।

कुछ चिपचिपा सा अंगूठे और तर्जनी में चिपक कर रह गया।
.... तुम्हारे लिपस्टिक का निशान !
जो हमारे तब के रिश्ते की सबसे हसीन याद थी।
हाँ, वो निशान अब कागज़ पर फैल गया था।
होठों की लकीरों का दबाव भी अब धुँधला गया था ।

कागज़ के पुर्ज़े का यूँ तार -तार हो जाना मुझे उदास से कुछ ज़्यादा उदास कर गया।
वो सिर्फ कागज़ नहीं था …
वो गवाही थी एक रिश्ते की ; अपनेआप में एक ज़िन्दगी समेटे हुए।
सावन की सीलन , माघ की ठिठुरन और जेठ का नौतपा समेटे हुए।
उस अधूरेपन में भी कितनी पूर्णता थी !
वो अधूरापन कितना भरा-भरा सा था !!

धुँधलाई आँखों का पानी पोंछने के लिए हाथ से चेहरा छुआ, तो नथुने तुम्हारी खुशबू से महक उठे।
अनमना सा उठा और ख़त के टुकड़े ले जाकर फुलवारी में डाल आया।
फिर जुट गया मैं खुद ही को फुसलाने , बहलाने और ललचाने में।
हज़ार कोशिशों के बाद भी रहा न गया तो सोचा एक बार फिर जा कर देख आऊँ … अंतिम विदाई दे दूँ उन्हें !

जानती हो मैं जब वहाँ गया तो मैंने क्या देखा ?
काली चीटियों की एक लम्बी कतार जो कागज़ के पुर्जों पर अपना डेरा डाले हुए थीं।
और चार रंग-बिरंगी तितलियाँ , जो उनके आस-पास मंडरा रहीं थीं।
प्यार की मिठास भी कभी ख़त्म हुई है भला ?
ख़त्म तो इंसान हुआ करते हैं !!!

तुम्हारा
देव

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