Wednesday 2 July 2014

उस घर और इस घर के बीच !


एक गर्म दिन की शुरुआत …
दफ़्तर की छुट्टी है। सुबह के नौ बजे हैं।
ड्राईंग-रूम के वुडन कारपेट पर बैठा हुआ हूँ।
वही ड्राईंग-रूम जिसके इंटीरियर और कलर-कॉम्बिनेशन के बारे में तुमने दूर बैठे ही टेलिपेथी से बता दिया था। 

खिड़की के पार अंगूर की बेल का एक सिरा लटक रहा है।
पत्तों के ऊपर सूरज की चमकती किरणें पड़ रही है।
हवा नहीं चल रही , तब भी बेल हौले-हौले झूल रही है।
अंगूर की बेल जब लहराती है , तो एक चाँदी के तार सा झलक जाता है।
कोई मकड़ी बुन रही है अपना जाल … या फिर यूँ ही लटकी हुई है बेल से एक तार बना कर !

उधर पीछे देखो , वो हरे रंग की नेट दिख रही है …
उसे मैंने लगवाया है, पड़ोस की नज़रों से बचने के लिए !

पड़ोस में दो युवा लड़कियाँ रहती हैं।
जो अक्सर मुझे पढ़ लिया करती हैं … जब भी मैं तुम्हें याद करता हूँ।
युवा हैं ना …
प्रेम के संकेत ज़िंदा हैं उनमें अभी !
उनमें जो बड़ी लड़की है वो अक्सर मुझे रँगे हाथों पकड़ती है।

यूँ ही एक दिन उस फ़ाख़्ता से बातें कर रहा था। जो अपने अंडे सेने घोंसले में आई थी।
मैंने मन ही मन उस फ़ाख़्ता से कहा कि आज मेरी प्रियतमा यहाँ होती तो वो तुम्हें देख कर कितनी खुश होती।
तुमसे कुछ सीखती , कुछ बांटती , ताली बजा कर हँसती और जीवन से नए रँगों को खोज लाती।
ये बातें करते - करते जाने क्या हुआ ....
और कुछ क्षणों के लिए मैं , मैं नहीं रह गया !

तभी किसी के खिलखिलाने की आवाज़ आई …
देखा तो पड़ोस वाली बड़ी लड़की मुँह पर हाथ रख कर, अपनी हँसी रोकने का असफल प्रयत्न कर रही थी।
मुझे बड़ी लज्जा का अनुभव हुआ।
लगा किसी ने घड़ा भर पानी मुझ पर उंडेल डाला।

तुम्हें पता है न मैं अब कितना अंतर्मुखी हो गया हूँ।
ऐसा प्रतीत हुआ किसी ने मेरे अंतरंगतम् क्षणों में मुझे देख लिया।
बस उसी दिन से मैंने ये हरे रंग की नेट लगवा दी … उस घर और इस घर के बीच !
दीवारें मुझे पसंद नहीं
और हरियाली में अक्सर तुम्हारी तस्वीर उभर आती है।
कुछ होता है , जो बहुत निजी होता है … भले ही वो भाव क्यों न हो !
मैंने ठीक किया ना ?

तुम्हारा
देव

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