Wednesday 2 July 2014

मैं तुमसे अपनी बात कह सकती हूँ।


प्रिय देव

तुम्हारे खत पढ़े।
उनमें से कुछ सच में मेरे दिल के क़रीब हैं।
कितनी बार कहा कि मन की झील में भावों के डल्ले मत फेंका करो।
तुम तो कह के भूल जाते हो और मैं सोच के घेरों में उलझ जाती हूँ।
ज़रूरी तो नहीं कि उत्तर ना दूँ तो इसके मायने ये कि मैंने खत पढ़ा ही नहीं !
कुछ ऐसा भी तो होता है , जो बिन बोले ही कह दिया जाता है …
उसे सुनना कब सीखोगे ?
पत्ते की नोंक पर लटकती ओस को कभी उंगली पर सहेज कर देखा है ?
यदि ऐसा कर सको तो तुम मेरी बात समझ जाओगे।
सृजन इतना ही सुकोमल है देव …
और शाश्वत भी !!!
मैं पहली स्त्री नहीं हूँ जो ये बात कह रही है।
मेरे पहले भी मुझ जैसी थीं ,
और मेरे बाद भी आएँगी ।
लेकिन यह समय -अंतराल जिसमें तुम-हम हैं … ये सिर्फ हमारा है।
समझ रहे हो ना !
कभी संपर्क के साधनों से परे हो कर देखो …
तब समझ पाओगे कि " बेतार के तार " क्या होते हैं।

तुम अच्छे हो देव …
मैं तुमसे अपनी बात कह सकती हूँ।
क्योंकि तुम अपनी अच्छाई का सर्टिफिकेट जेब में लेकर नहीं घूमते।
गहराई और उथलापन पानी ही नहीं , जीवन के भी दो पहलू हैं।
कभी गौर किया है …
जहाँ पानी उथला रहता है , वहाँ डर नहीं लगता। किन्तु कोई आकर्षण भी नहीं रहता वहाँ !
एक अजीब किस्म की उदास बेफिक्री होती है बस।
और गहराई से हम तब तक ही डरते हैं , जब तक कि एक बार उसमें उतरते नहीं।
रिश्ते भी ऐसे ही होते हैं देव ....
यदि रिश्तों का रस चखना है तो गहराई में जाओ।
.... भावना की अनंत , अतल गहराई में !!!
जहाँ जाकर या तो तुम डूब जाओ
या तुम्हें अपने अस्तित्व की लघुता स्पष्ट दिखाई देने लगे।
बस प्यार वहीँ से शुरू होता है !

एक बात और …
प्यार एक खोज है।
किसी अपने जैसे की … तमाम विरोधाभासों के बाद भी कोई अपना सा !!
एक खोज , जो मैं से होकर तुम और फिर ' हम ' तक चली जाती है।
खैर जाने क्या - क्या कहने लगी मैं !
एक तस्वीर भेज रही हूँ …
जिसे मैंने बनाया है और रंग भी मैंने ही भरे हैं। उस बच्चे के साथ मिल कर जो मेरी आत्मा का अंश है।
जब-जब फुर्सत होगी बात करती रहूँगी ।
मगर कोई वादा नहीं।
हाँ ,
तुम ख़त लिखते रहना।
अच्छा लगता है ....

तुम्हारी

मैं !
 

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