Friday 25 July 2014

ऐसा क्यों सखी ?

                       
ज़िंदगी अब रेंग नहीं रही ...
वो या तो स्थिर है या इतनी तेज़ की उसकी रफ्तार नहीं दिखती ।
पर इसमें वो मज़ा नहीं , जो तुम्हारे एहसास में है !
तुम्हारी बात-बात में है !!

कई बार बड़ी देर तक आईने के आगे खड़ा होकर, आँखों में आँखें डाले घूरता रहता हूँ खुद को !
कि तुम दिख जाओ मुझको मुझमें ही कहीं ।
लेकिन अक्सर ऐसा हो नहीं पाता ....
आँसुओं की मोटी बूँद रलक जाती है मेरी बाईं आँख से ।
... और दायीं आँख वैसी ही सूखी रहती है !

चाहता हूँ कई बार ....
कि चला जाऊँ यहाँ से कहीं दूर  !!!
बिना किसी से कुछ कहे , बिना किसी को कुछ बताए ।
लेकिन जैसे ही ये विचार उगता है ...
तत्क्षण कई अदृश्य बेड़ियाँ पैरों में कस जाती हैं।
उसके बाद तो ज़ोर से साँस लेता हूँ तो भी धकड़ी खा कर गिरने लगता हूँ ।

अक्सर तुम्हें सोचता हूँ ।
कि तुम कहीं किसी से नहीं भागती ,
तुम हमेशा मन से भी वहीं रहती हो , जहाँ पर तन से हो ।
कहीं जाती भी हो तो हमेशा बता कर जाती हो ....

लेकिन तब भी ,
तुम इस दुनिया की नहीं लगती ।
तब भी बड़ी अलौकिक सी लगती हो ।
नज़रों के सामने रह कर भी गुम हो जाती हो !
.... और मुझे लगता है कि मैंने किसी धुंए को चाहा है ।
.... मैंने किसी खुशबू से प्यार किया है ।
.... मैंने गुज़रती हुई हवा को बाहों में भर लेने कि निश्चेष्ट-चेष्टा की है ।

ऐसा क्यों सखी ?
फिर-फिर वही एक अनुभूति ....
लेकिन हर बार एक नयापन ।
बोलो न तुम भी !
या कि सच में तुम्हारा और मेरा मिलना एक संयोग मात्र है ?
और मेरी दुनिया में आई हो तुम .... बस एक रहगुज़र की तरह ।
कुछ तो बोलो ,
जवाब दो मुझे !!!

तुम्हारा

देव

                                            

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